कविता के रंग

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  • वेद प्रकाश

कविता अपने जन्म से ही मन को आंदोलित करती रही है । वैसे, कविता मूलत: लोग गीत को ही आज भी मानते हैं । कविता गीत का रूप हो सकती है, लेकिन, जब केवल कविता की बात होगी तो, उसमें हमारे ऊबड़-खाबड़ हिस्से शामिल हो जाते हैं। मैं इसकी शुरूआत धूमिल से ही मानता हूं। हो सकता है, यह प्रारंभ बिंदु विवादास्पद हो । धूमिल से कविता का प्रारंभ मानने का एक प्रमुख कारण यह भी है कि धूमिल मानवीय अधिक है । धूमिल अपनी कविताओं में अति-मुखर है, क्रोध में हैं, कुछ पा लेने को व्यग्र हैं। धूमिल ने समाज को एक अन्यायविहीन करने को सोचा। धूमिल के तीखा होने का यह एक प्रमुख कारण है। कविता यदि आगे बढ़ी तो उसके पीछे मानवीय पक्ष ही प्रमुख था, जिसे धूमिल मरते दम तक आक्सीजन देते रहे। धूमिल कहते हैं :-
जबकि मैं जानता हूं कि
इन्कार से भरी हुई एक चीख
और एक समझदार चुप
दोनों का मतलब एक है
भविष्य गढऩे में , चुप और चीख
अपनी अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना अपना फर्ज अदा करते हैं

कविता कभी विचलित नहीं होती। कविता अपने रूप और गठन में कभी भी अपने को कम नहीं आंकती। कविता जिस भाषा में कही जाती है, समझने वाला समझ लेता है, तभी, तो उस कविता का कभी-कभी प्रतिकार भी होता है । जबकि, कविता किसी बड़े सुधार की मांग करती है अथवा, किसी बड़े और सुगठित व्यवस्था के साथ खड़ी होती है । जब कविता का अनर्थ किया गया, तब कविता व्यक्ति को शस्त्र जैसी लगने लगती है। कविता का शस्त्र होना, यह कविता का विशिष्ट गुण है। कविता इसी रूप में अन्य विधाओं से अलग हो पाती है ।
कविता आदमी के साथ आदमी की पहलकदमी करती है। लेकिन, क्या किया जाय? जब हमारे उद्देश्य नकारात्मक हो रहे हों। इन परिस्थितियों में भी कविता आदमी के साथ ही खड़ी होती है। जहां कविता मुकम्मल बयान होती है, वहीं कविता एक रास्ता भी होती है। जरूरत है, अपनी समझ बढ़ाने की। कविता से जुडऩे की। यह जरूरी नहीं कि कविता का आकार कोई शब्द में ही हो। पिकासो अपनी रेखाओं में बता देते थे कि, अत्याचारी कौन है ? हिटलर को मुहतोड़ जवाब पिकासो ने ही दिया था। हिटलर निरूत्तर था। यह क्षमता होती है, कविता की।
दुनिया में अभी महत्वपूर्ण कविता लिखी जानी शेष है। हम यह भी कह सकते हैं, हमारे बेरोजगार, हमारे मेहनतकश, हमारी आधी आबादी रोज एक कविता लिख रही है। जिसे रोज पढऩे की जरूरत है। देखने की जरूरत है। समझने की जरूरत है। सिर पर चौलाई का साग लादे, एक बुढिय़ा गली गली भटक रही है, लेकिन, चौलाई खरीदने वाले और खाने वाले ही नहीं रहे। गुब्बारे वाला बांसुरी बजाता रास्ता दर रास्ता नाप रहा है, लेकिन, वह बचपन ही नहीं रहा जो उसे खरीद सके, और उन गुब्बारों और बांसुरी से खेल सके। ये चीजें ड्राइंग रूम की हो गयी। जहां उन्हें सजा दिया जाता है, जब कि उनके साथ खेलने का तत्व जुड़ा है। हमारी बड़ी दिक्कत यही है कि हम चीजों का उपयोग भूलते जा रहे। निदा फाजली ने यूॅ ही नहीं कहा :-
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है।
मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है।।

जीवन दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है। संबंध केवल कुछ सिक्कों पर ही टिके हैं। आदमी अपने-अपने फायदों में उलझ गया है। नुकसान तो कोई भी नहीं उठाना चाहता है। यह कैसे संभव है, कि केवल फायदा ही हमारी नियति हो जाय। यह कैसे संभव है कि केवल हम ही रहें। ये सब, बाजार मुफ्त में लेकर आया है। अप्रत्यक्षत: अब हम बिकने को तैयार हैं। फर्क इतना ही है, कि कोई पहले बिकेगा, कोई बाद में। हम इसे ही अपना विकास मान बैठे हैं।
सुनती हो तुम रूबी
एक नाव फिर डूबी
ढूंढ लिए नदियों ने
रास्ते बचाव के

देवेन्द्र कुमार बंगाली

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